सीमांत उपभोग प्रवृत्ति किसे कहते हैं? यह किस प्रकार सीमांत बचत प्रवृत्ति से संबंधित है?
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आभूषणों का आविष्कार सजाने की प्रवृत्ति से हुआ
विशेष अवसर के लिए लोक नर्तक दल बढि़या किस्म के आकर्षक रंग-बिरंगे वस्त्र आभूषण पहनते हैं, परंतु उनमें स्थानीय छाप अवश्य रहती है। इसी प्रकार आभूषणों का आविष्कार भी निश्चय ही मनुष्य की अपने को सजाने की सहज प्रवृत्ति के ही कारण हुआ होगा…
लाहुल-स्पीति अपने प्राचीन वैभव और गाथाओं के लिए अधिक प्रसिद्ध है। लोक जीवन की परंपरागत थाती लोक नृत्य एवं नृत्य गीत अपने प्राचीन सौंदर्य के साथ वर्तमान की चकाचौंध में भी जीवित रह पाए हैं, तो उसका श्रेय उसमें निहित लोकमंगल और कल्याण की भावना ही को दें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। विशेष अवसर के लिए लोक नर्तक दल बढि़या किस्म के आकर्षक रंग-बिरंगे वस्त्र आभूषण पहनते हैं, परंतु उनमें स्थानीय छाप अवश्य रहती है। इसी प्रकार आभूषणों का आविष्कार भी निश्चय ही मनुष्य की अपने को सजाने की सहज प्रवृत्ति के ही कारण हुआ होगा। साधारण जनता के प्राकृतिक वातावरण की वस्तुओं, फूलों, जंगली पत्ते, बेलों, वनस्पतियों, पशु की खालों और पक्षियों के पंखों को आभूषणों से परिणत कर दिया गया। आज तक अनेक जनजातियों द्वारा खालों, परों, फूलों इत्यादि का उपयोग सजावट के काम के लिए किया जाता है। यह जातीय सजावट लोक नृत्य के अवसर पर प्रायः देखने को मिलती है।
लोक नृत्यों में वेशभूषा
इन प्रवृत्ति के प्रकार नर्तकों की वेशभूषा को पांच भागों में बांटा जा सकता है। पहला सिर जिसमें टोपी, पगड़ी, चादर और धाटु या ठाटु (थीपू) आते हैं। दूसरा छाती का जिसमें स्त्रियों की अंगिया, सदरी, पुरुषों का जैकट इत्यादि, तीसरे छाती से कमर तक के, इसमें कोट अचकन, पट्टू, शाल, कुर्ता, रेजटा इत्यादि गिने जा सकते हैं। चौथे कमर से घुटने तक जिसमें पायजामा, सलवार, धोती और पांचवें पांव के जूते, लैटे, पूले, पाजेब, जुराबें इत्यादि का वर्णन किया जा सकता है। प्रायः ऋतु अनुसार नर्तक सूती या ऊनी, नए चमकीले और भड़कीले वस्त्र पहनते हैं। ऊनी वस्त्र 5000 फुट से ऊंची जगह पर ही पहने जाते हैं। कांगड़ा, मंडी, सुकेत, बिलासपुर इत्यादि में नर्तक प्रायः खद्दर या रेशमी कुर्ता व तंग पायजामा सिर पर टोपी साधारण सा कपड़ा, कंधे पर छोटा लाल रंग का कपड़ा, कभी-कभी लट्ठा या पापलीन की कमीज और वोस्की प्रवृत्ति के प्रकार का पायजमा तथा संतरी रंग की पगड़ी पहनते हैं। गले में सोने का जेवर सिंगी डालते हैं और कानों में नंतियां। महिलाएं चूड़ीदार पायजामा या काली सलवार, चांदी का लंबा हार (जैसे गहने) ऊंचा चाक, हाथों में गजरू, कानों में बालियां (सोने या चांदी के) कांटे, नाक में नथ, लौंग तीली, माथे पर सिंगार पट्टी, हाथों में चूडि़यां, हार, मुरकू पहनते हैं। पांव में झांझर प्रवृत्ति के प्रकार या पाजेब डाली जाती है। सोलन, शिमला और सिरमौर में पुरुष गर्म कोट (चोलटी)अंगरखा झुगा, लुइया, गाची (कमरबंद) टोपी, चूड़ीदार पाजामा, (सूथण) गर्म या सूती कोट, रेजाटा और अन्य अलंकार पहनती हैं।
प्रवृत्ति के प्रकार
'सवाल के पाँव ज़मीन में गहरे गड़े हैं। यह उखड़ेगा नहीं।' इस कथन में मनुष्य की किस प्रवृत्ति की ओर संकेत है और क्यों?
इस कथन में मनुष्य की उस प्रवृत्ति की ओर संकेत किया गया है, जहाँ वह किसी समस्या पर अत्यधिक सोच-विचार करता है। वह किसी समस्या से उपजे प्रश्न को बहुत जटिल बना देता है और हल न मिलने पर हताश हो जाता है। यह उचित नहीं है। हर प्रश्न का उत्तर होता है। बस प्रयास करना चाहिए कि वह उसे सही प्रकार से हल करे। इस ओर इसलिए संकेत किया गया प्रवृत्ति के प्रकार है ताकि उन्हें ऐसी स्थिति से अवगत करवाया जा सके।
अहंकार मनुष्य की नकारात्मक प्रवृत्ति है
अहंकार मनुष्य की नकारात्मक प्रवृत्ति है। अहंकार अधिकतर शक्ति, धन और सत्ता के कारण उत्पन्न होता है, परंतु कभी-कभी कुछ मनुष्यों में अहंकार उनके सकारात्मक भावों जैसे ईमानदारी, सदाचार और मेहनती होने के कारण भी पैदा हो जाता है। ये दोनों प्रकार के अहंकार मनुष्य की आध्यात्मिक उन्नति में बाधक
अहंकार मनुष्य की नकारात्मक प्रवृत्ति है। अहंकार अधिकतर शक्ति, धन और सत्ता के प्रवृत्ति के प्रकार कारण उत्पन्न होता है, परंतु कभी-कभी कुछ मनुष्यों में अहंकार उनके प्रवृत्ति के प्रकार सकारात्मक भावों जैसे ईमानदारी, सदाचार और मेहनती होने के कारण भी पैदा हो जाता है। ये दोनों प्रकार के अहंकार मनुष्य की आध्यात्मिक उन्नति में बाधक साबित होते हैं। अहंकार के कारण मनुष्य स्वयं यानी ब्रह्म के अंश (जो हर जीव में विद्यमान है) से एकाकार नहीं हो पाता और इसके कारण वह समाज प्रवृत्ति के प्रकार में भी अलग पड़ जाता है।
समाज और स्वयं की उपेक्षा के कारण उसके मन में नकारात्मक सोच जाग्रत हो जाती है। इस प्रवृत्ति के प्रकार सोच के परिणामस्वरूप मधुमेह और हृदय रोग जैसी बीमारियां उसे घेर प्रवृत्ति के प्रकार सकती हैं। इसके अलावा मानसिक रोगों जैसे अवसाद(डिप्रेशन) भी प्रवृत्ति के प्रकार पाया जाता है। इसलिए सामाजिक और आध्यात्मिक उन्नति के लिए मनुष्य को अहंकार रहित होना चाहिए और सम स्थिति की प्राप्ति के लिए ही अष्टांग योग को अपनाया जाता है। यम और नियम का पालन करने से स्वत: मनुष्य अहंकार रहित होकर सम स्थिति में पहुंच जाता है। भगवान ने स्वयं इसकी शिक्षा नारद मुनि को दी। एक बार नारदजी ने कामदेव पर विजय प्राप्त कर ली थी और इस विजय का अहंकार नारद जी को हो गया था और जगह-जगह वह इसका गुणगान करने लगे। इसे देखकर प्रभु ने कहा कि मैं मुनि के इस अहंकार को तुरंत उखाड़ फेंकूंगा, क्योंकि सेवकों का हित करना हमारा प्रण है। इसके लिए प्रभु ने नारद जी के लिए कुछ ऐसी परिस्थितियां पैदा कर दीं, जिससे उन्हें निराशा मिली और नारद अपने अहंकार से मुक्त हो सके।
निराशा के समय नारद जी को क्रोध आया, परंतु बाद में इसके कारण वे अपने अहंकार से मुक्त हो सके। इसी प्रकार संसार में कभी-कभी सद्मार्ग पर चलने वालों को जब अहंकार हो जाता है, तब-तब प्रभु अपने भक्त की रक्षा के लिए उसे कुछ समय के लिए निराशा का भाव देते हैं ताकि वह स्वाध्याय द्वारा स्वयं को सुधार कर सके। प्रभु ने कहा है कि मैं सदा उन लोगों की वैसे ही रखवाली करता हूं, जैसे माता बालक की रक्षा करती है और रखवाली करने के लिए कभी-कभी माता बालक पर सख्ती भी करती है और इसी कारण कभी-कभी सख्ती के रूप में सख्त परीक्षा का समय मनुष्य के जीवन में आता है। आइए हर प्रकार के अहंकार का त्याग कर सम स्थिति को प्राप्त करें।
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